हथेली से गुजरती हुई
वो पतली सी पानी की धार
पथ्थर की तरह
एक लकीर बनाकर चली गई .....
सहर में एक अक्स उभरकर निकला
उस लकीर की गहराई से
एक आवाज भी आई ...
वो आवाज में घुला था मेरा नाम ...
दौड़कर खिड़की खोली ,
एक सर्द हवा का झोंका
मेरे चेहरे को छूकर कमरे में आ गया...
मैं खामोश वो झोंके से उभरा वो
गीत सुनता रहा जो तुम गाती थी...
अक्सर मुझे बुलाने का इशारा देते हुए ,
जब उस झरने पर पानी भरने आती थी ...
लोग कहते है ये झरना नही सूखता
कड़ी धूपों में जुलसकर भी !!!!
कैसे सूखे ??
रातों को तन्हाई में झरने के किनारे
रोते है हम दोनों तुम्हारी यादों में भीगते है ....
जिंदगी मेरे लिए ख्वाबोंके बादल पर उड़नेवाली परी है .!! जो हर पल को जोड़ते हुए बनती है, और उन हर पलोंमें छुपी एक जिंदगी होती है ....
18 अप्रैल 2018
लकीरें
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जवाब देंहटाएंधन्यवाद
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