रात आकर मरहम लगाती,
फिर भी सुबह धरती जलन से कराहती ,
पानी भी उबलता मटके में
ये धरती क्यों रोती दिनमें ???
मानव रोता , पंछी रोते, रोते प्राणी
ढूंढते छांव धूप के तीरो से बचने को ,
पेडों से घिरी सड़कें अब तो कल की बात है ,
सीमेंट के जंगल मे पेड़ कहाँ मिलते???
वो हमारे ही कर्म थे जो लकड़ी के लिए
पेडों की बलि चढ़ाते रहे हम ,
पैरों से चलने की आदत छोड़ कर,
पेट्रोल के ईंधन के वाहन को अपनाते गए ,
अब फल मिलने लगे है भरपूर,
पारा उष्णता का नहीं उतरता नीचे
करता 40 और 45 सेल्सियस के पार
धरती के वस्त्र स्वरूप वृक्षों को
हम बेरहमी से काटते रहे ..
अब गर्मी से झुलसते हम बेहोश होकर
प्राण खोते रहने की शुरुआत हो रही है ...
वक्त रहे सम्भल जाओ..
पेट्रोल , पानी और पेड़ बचाओ ...
सायकल से सेहत बनाओ ,
सादगी से रहकर धरतीको बचाओ ....
जिंदगी मेरे लिए ख्वाबोंके बादल पर उड़नेवाली परी है .!! जो हर पल को जोड़ते हुए बनती है, और उन हर पलोंमें छुपी एक जिंदगी होती है ....
27 मई 2018
जलती धरती
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आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' २८ मई २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
जवाब देंहटाएंटीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
बढती गर्मी और पर्यावरण के दुश्परिणाम दिखाती सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना।
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