29 नवंबर 2011

ख़ामोशीके दायरोंका दुशाला

ख़ामोशीके दायरोंका दुशाला लपेटकर खुद पर
बस रातके जाम को पिने के लिए
सड़क पर चल पड़े यूँ ही बेवजह से ....
एक सरसरी ख़ामोशीके सफे पर बिछी
अँधेरी रातकी आगोशमे लिपटी हुई
वो सिसकी पल भरमें
जैसे कोई आभास हो गुम हो गयी ...
राहों पर चलते चलते कुछ चुभ गया ,
देखा तो कोई दिल टुटा था
उसकी किरचें बिखर रही थी ,
छुआ उस सरजमीं पर
तो आंसुओकी बौछारसे किसीकी वो भी गीली थी ......
शायद ये कब्रथी किसीकी चाहतकी
एक फूल जो हाथमे था
खुद ब खुद वहीँ गिर गया .....

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