समन्दर बहुत बड़ा होता है ,
इतना विशालकी आँखोंके आगे भी उसकी सरहदें ख़त्म नहीं होती ,
पर उस विशालताको क्या कहे ???
उसके जलकी बूंद भी प्यास मिटा नहीं सकती ....
उसमे हम भीग नहीं पाते ???
ये सागर पास हो ना हो कोई फर्क नहीं पड़ता ..........
बस उसके साहिल पर बरसोंसे बिछी वो रेत की चद्दरे
भीगती है ,पर फिर भी भीतर कोरी कोरी .....
किनारे पर उगे नारियलका एक पेड़से पूछ बैठी ,
कैसे इस नमक को हजम करके तुम मीठा जल देते हो????
उस भीगी रेत पर लिखकर नाम हर रात चली जाती हूँ ....
कोरी मिलती है फिर वो स्लेट नया नाम लिखने के लिए ....
समुन्दर के किनारे ये खेल जो बरसों से हो रहा ....
एक प्यास और पानी की अथाह राशी समेटे जलराशि के बिच ...
अच्छी रचना.....
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