17 अक्तूबर 2011

एक दरवाजे पर

एक दरवाजे पर जाकर दस्तक देकर सोचा ,
शायद मुझे लौट जाना चाहिए ....
अब वो नहीं जिसके लिए इस दर पर आये है ,
उसने ही दरवाजा खोला ...
सामने ख़ुशी थी , शरमाईसी ,लजाई सी ,
एक बेबाक ,पाक ,रूहानी नूर लिए ....
मैंने पूछा क्यों छुप रही हो ????
हौले से कहा उसने क्या करू ???
मुझे तो पैसोंसे खरीदनेमें दुकानोंमें मोलमें हुजूम उमड़े है ,
क्या पता उन्हें मेरा पता कोई नोट पर नहीं लिखा है ,
न ही मैं खरीदी या बेची जा सकती हूँ ...
फिर भी ये जानते हुए जब बेचेनी होती है ,
बस मैं यूँ ही तन्हाई में चली जाती हूँ ....
और जानती हूँ तुम्हारे पास जो है मेरा पता ...
बस तुम मुझे कहीं न कहीं ढूंढ ही लोगे !!!!!

1 टिप्पणी:

  1. और जानती हूँ तुम्हारे पास जो है मेरा पता ...
    बस तुम मुझे कहीं न कहीं ढूंढ ही लोगे !!!!!बहुत ही अच्छी....

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