कल मिलना हुआ मेरे दोस्त को ,
मैंने पूछा ," क्या कहोगी दोस्ती को अपनी ?"
"होगी आसमां की तरह ? या विशाल गहरे सागर सी ?"
उसने कहा की," होगी आसमां सी ऊँची ....
टीम टीम करते तारों सी ,चमकते सूरज सी और शीतल चाँदनी सी ...."
मैंने कहा ,"होगी वो गहरे सागर सी ,
भाप बनकर उड़े कभी आसमां में तो
बारिश बनकर बरसेगी जमीं पर ही फ़िर से ,
गर बिछड़े कभी तो दिल में आस लिए की
हम है तो इसी दुनिया में कहीं न कहीं फ़िर मिलेंगे ही ..."
आसमान को लेकर मैं क्या करूँ मुठ्ठी मैं कैद करूँ
और खोलकर देखता हूँ तो मुठ्ठी खाली ही खाली है ,
तुझे तारोसा देखूं तो भूलभुलैया लागे है ,
सूरज से जलता है दामन मेरा और चाँद की तरह लुकाछिपी ?
दोस्त तुम आसमान हो और मैं जमीं ...
मिलकर भी जो मिले न कभी ....
bahut hi badiya
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना। बधाई।
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