6 अप्रैल 2013

कांच की खिड़की से बाहर ...

आँखे फाड़ फाड़ कर देखती हूँ
कांच की खिड़की से बाहर ...
तेज धुप की ओढ़नी ओढ़कर
धरती मुस्कुरा रही थी ...
मैं जल रही थी ,आग आग हो रही थी ,
और धरती मुस्कुरा क्यों रही थी ????
परिणयका दौर होगा शायद उसका सूरजसे ,
सूरजकी किरणे उसे तार तार कर रही थी ,
और वो जैसे आग की लपटोमें पिघल रही थी ,
जिसमे मेरी ख़ुशी थी वो शायद उसका दर्द होगा गहरा ,
और मेरा दर्द मेरा जलना मेरा सुलगना ,
उसकी आस में बैठी हो धरती शायद इंतज़ारमें ,
ये दर्द ,ये जलन ,ये तपिश उसका श्रृंगार होगा शायद ,
और ये ही शायद ख़ुशी थी या कोई इश्किया साजिश ,
उसके और सूरज के मिलन के बीच कोई न आ सके ,
बस काली सड़क ,खड़े वृक्ष ,उसमे छुपे पंछी ,
छाँवमें बैठे जानवर ,
और दुबककर ठंडक की खोजमे बैठे इंसान भी .....

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