21 जनवरी 2013

मैं खुद को भर दूंगी ...

कल कलम उठाई तो स्याही सुख चुकी थी ,
दूसरी लेने गयी तो दुकान बंद हो चुकी थी .....
दोनों मिले तो लिखने गयी तो कागज़
उड़ गया तेज़ हवाके जोंकोंसे ....
और अल्फाज़ रह गए ऊँगली के सिरहाने पर
आधे जगे आधे सोये से ........
बस दूर दूर तक आसमानों से जमीं की सरहद तक एक सफ़ेद स्याह रंग बिखर बिखर कर बहता सा नज़र आया ....एक तस्वीर बन रही थी धीरे धीरे धीरे .....और तस्वीरसे उठती हुई पलकें कुछ बयां कर रही थी ..कैमरे में कैद सी वो तस्वीर स्याह स्याह बिखरती हुई सफ़ेद परिधानों पर ..कुछ तरसती ,लरज़ती कटी कटीसे रेखाओ को जोड़ने की फ़िराक में जैसे आधे रस्ते सो गयी हो ...
एक अधूरी से तस्वीर को पूरी करने की कोशिश करती में  चाँदनी को दरख्वास्त करने लगी चाँद को ...बिजलीके नकली रोशनदानो की रौशनी से नहीं तेरी चाँदनीमें ये तस्वीर पूरी करनी है मुझे रुक जाओ ......
पता ही नहीं चला मुझे बंद परदोंके पीछे सूरज आने की तैयारी  हो चुकी थी ....
और लाल आँखोंकी लकीरे एक उम्मीद से बोल पड़ी :
ख्याल तू रुक जाना आज मेरे जहनमें सिर्फ एक रात और ,
कल हमें ये टूटे खिलौनी से बनी तस्वीर को जोड़ेंगे .....
और उसके जुड़ने की जगह मैं खुद को भर दूंगी ....
कहीं इस जोड़से उसकी खूबसूरती कम नज़र आये .......

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