कल रात एक फिल्म आ रही थी दूरदर्शन पर देखने बैठ गयी .."चिल्लर पार्टी "...
सच कहूँ तो बहुत दिनोंके बाद इस फिल्म को खूब एन्जॉय किया ...छोटी छोटी खुशियों और शरारतसे भरा हुआ बचपन ..और उन पंछियोंके पर को बांधकर रखने की कोशिशमें माँ बाप ....एक कुत्ते के लिए लड़ जाते अड़ जाते बच्चे खूब मजा आ गई .......उनके नाम बोले तो साइलेंसर ,जांगिया ,एन्साय्क्लोपिदिया ,सेकण्ड हेंड ..मजेदार केरेक्टर .........
सच कहूँ तो खुदका बचपन याद कर लिया ...हम सायकल रिक्शामें स्कुल जाते थे ...एक लड़का हमेशा लेट करता था ...हमेशा हमें देर तक रिक्शा उसके घर के पास रोकना पड़ता था ...तो गुस्सेमे मैंने उसका नाम न" नवाब सिकंदर " रखा था ...फिर कहा सिकंदर तो बहादुर था तो फिर उसका नाम " नवाब मरघी '(मुर्गी ) रखा था ....मैं सायकल रिक्शा को चलाकर दूर तक ले जाती थी और चाचा और वो बच्चे को दौड़ना पड़ता था ....हा हा हा ...!!!स्कुल में एक टीचर को फेशन परेड कहते थे .....और जब बारहवी कक्षामें थे तो एक पटेल सर आते थे कोमर्स पढ़ाने के लिए ..देव आनंद की तरह जुल्फोमे पफ बनाकर ..और थोड़ी सी लड़की सी आवाज तो उन्हें हम "चकली " बोलते थे .......पड़ोस में बंगाली फेमिली थी ...उनकी एक छोटी सी कहानी आंटीने हमें कही तो हमने उनकी बेटी को पोद्दी पोद्दी जा जा खोल कहना शुरू कर दिया ....किसीको पप्पू विरजी कहते थे तो एक अंकल जिनके सर पर चाँद था उनके लिए " मेरे सामने वाली खिड़की में एक टालका टुकड़ा रहता है गाते थे ........
बाप रे कितनी शरारतें खुद की भी याद आई .......
अब हम बड़े हो गए तो भी पकाऊ लोगोके नाम रखते है ...किसी विचित्र लोगो के भी नाम रखते है ...उनकी मजाक बनाते है ...थोड़ी देर का मनोरंजन करते है ...पर उसमे कहीं इर्ष्या ,जलन कुढ़न होता है ..निर्दोष मजाक और फिर दिलसे अपनाने की बात बहुत कम होती है ...
हम क्यों खुदमें बैठे बचपन को मार देते है ????
सच कहूँ तो बहुत दिनोंके बाद इस फिल्म को खूब एन्जॉय किया ...छोटी छोटी खुशियों और शरारतसे भरा हुआ बचपन ..और उन पंछियोंके पर को बांधकर रखने की कोशिशमें माँ बाप ....एक कुत्ते के लिए लड़ जाते अड़ जाते बच्चे खूब मजा आ गई .......उनके नाम बोले तो साइलेंसर ,जांगिया ,एन्साय्क्लोपिदिया ,सेकण्ड हेंड ..मजेदार केरेक्टर .........
सच कहूँ तो खुदका बचपन याद कर लिया ...हम सायकल रिक्शामें स्कुल जाते थे ...एक लड़का हमेशा लेट करता था ...हमेशा हमें देर तक रिक्शा उसके घर के पास रोकना पड़ता था ...तो गुस्सेमे मैंने उसका नाम न" नवाब सिकंदर " रखा था ...फिर कहा सिकंदर तो बहादुर था तो फिर उसका नाम " नवाब मरघी '(मुर्गी ) रखा था ....मैं सायकल रिक्शा को चलाकर दूर तक ले जाती थी और चाचा और वो बच्चे को दौड़ना पड़ता था ....हा हा हा ...!!!स्कुल में एक टीचर को फेशन परेड कहते थे .....और जब बारहवी कक्षामें थे तो एक पटेल सर आते थे कोमर्स पढ़ाने के लिए ..देव आनंद की तरह जुल्फोमे पफ बनाकर ..और थोड़ी सी लड़की सी आवाज तो उन्हें हम "चकली " बोलते थे .......पड़ोस में बंगाली फेमिली थी ...उनकी एक छोटी सी कहानी आंटीने हमें कही तो हमने उनकी बेटी को पोद्दी पोद्दी जा जा खोल कहना शुरू कर दिया ....किसीको पप्पू विरजी कहते थे तो एक अंकल जिनके सर पर चाँद था उनके लिए " मेरे सामने वाली खिड़की में एक टालका टुकड़ा रहता है गाते थे ........
बाप रे कितनी शरारतें खुद की भी याद आई .......
अब हम बड़े हो गए तो भी पकाऊ लोगोके नाम रखते है ...किसी विचित्र लोगो के भी नाम रखते है ...उनकी मजाक बनाते है ...थोड़ी देर का मनोरंजन करते है ...पर उसमे कहीं इर्ष्या ,जलन कुढ़न होता है ..निर्दोष मजाक और फिर दिलसे अपनाने की बात बहुत कम होती है ...
हम क्यों खुदमें बैठे बचपन को मार देते है ????
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें