कभी सोई सोईसी लगती है भरी दोपहरमे ,
ये डामरको पिघलाती हुई सड़क ,
ये सड़क मेरे शहरकी है ,
उसकी आखरी तहकी मिटटी पर
मेरे बचपनके छोटे छोटे पैरोंके निशान है ,
वो नंगे पाँव घूमते थे उसको खुद पर सहेजा है ...
जब बस्तीकी बाढ़ आ गयी इधर ,
और वो दो और चार पहियोंके वजनी राक्षस
निकल पड़े कुचलने वो बचपन की छाप ,
ये सडकोंने छुपा लिए उन्हें सहेजकर ,
उसे भी था मेरे लौटनेका कोई इंतज़ार ???
आज वो तनहा सिसकती है रातोंमें
जब सन्नाटा निकलता है प्रहरी बनकर ,
वो मांगती है
वो बरगदके सारे पेड़ लगे थे जो रस्तेके किनारे ...
पंछीकी चहक नहीं है न घोसलोंका अड्डा ,
अब जैसे सहरा छोडके आया हो रेगिस्तान
वैसे तपता सूरज होकर सड़क पर मेहरबान ....
तब एक छोटासा बच्चा आया ,
उसने अपने दादाके साथ एक छोटासा पेड़ लगाया ....
सड़क हंस पड़ी .....
उसे अपना घटादार छाँवका भविष्य नज़र जो आया ...!!!
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