23 सितंबर 2011

मिटटीकी दीवारोंसे

गुलदस्तेमें हँसते हुए फूलोंने 
शिकायत कर दी मुझसे 
डालीसे बिछड़कर हमारे 
आंसू ही खुशबू बनकर बिखर गए फिजाओंमें ....
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इस मिटटीकी दीवारोंसे 
उखड़ती हुई परतोंके नीचेसे
दिख रहे थे कंकाल वहां पर गुजरे हुए कल के 
खंडहरसा ये कुछ कल एक घर था हँसता हुआ .....

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