कल दूर दर्शन पर ब्लेक एंड व्हाईट एरा की एक ख़ूबसूरत फिल्म देखी ...
"ख़ामोशी "......धर्मेन्द्र ,वहीदा रहमान ,राजेश खन्ना ....
गुलज़ार के संवाद और गीत और असितसेन का दिग्दर्शन ...
ख़ामोशीकी जुबाँ शायद सबसे मुश्किल जुबाँ है समजने के लिए ....एक पागलको ठीक करते हुए एक नर्स को मरीज़से प्यार हो जाता है और ठीक होते ही वो मरीज़ अपने पुराने प्यार के पास लौट जाता है ...हाँ वो नर्स के लिए बड़ा ही शुक्रगुजार रहता है ....
दूसरी बार वैसे ही एक मरीज़ का इलाज करने के लिए नर्स मना कर देती है जिस पर डॉक्टर ऐतराज़ करते तो है पर उसकी मर्ज़ी का पालन भी करते है ...बस उस वक्त एक हादसा उसे इलाज करने को मजबूर करता है और फिर वो उस काम के लिए राज़ी हो जाती है ...पर जब मरीज़ ठीक होता है तो वो पागल हो जाती है ॥
उसकी डायरी से पता चलता है की हर कोई ये भूल गया था एक नर्स के साथ वो एक इंसान भी है जिसके खुद के जज्बात होते है ,उसके एहसास होते है .....
बस ये ख़ामोशी कितनी गलत फहमी या खुश फहमी पैदा करती होगी वो तो वही बता सकते है जिससे इस रहगुजर से गुजरना पड़ा हो ..... आज कल सबके जज्बातों का इस्तेमाल करना आम बात हो गयी है ...लोग पुराने कपडे की तरह लोगो को भी अपनी गरज ख़त्म होते ही जिंदगी के बाहर फेंक देते हिचकते नहीं ....
शायद ये फिल्म देखते मैंने जो भी महसूस किया वो मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकती ....पर बस ये जज्बातों की अहमियत को भुला कर जी रहे लोग कहाँ जा रहे ये उन्हें शायद नहीं पता ....
जिंदगी मेरे लिए ख्वाबोंके बादल पर उड़नेवाली परी है .!! जो हर पल को जोड़ते हुए बनती है, और उन हर पलोंमें छुपी एक जिंदगी होती है ....
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आज कल सबके जज्बातों का इस्तेमाल करना आम बात हो गयी है ...लोग पुराने कपडे की तरह लोगो को भी अपनी गरज ख़त्म होते ही जिंदगी के बाहर फेंक देते हिचकते नहीं .....बिलकुल सही कहा आपने......
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