24 अप्रैल 2010

एक बूंद ...शबनम की ...

मेरे सपने मेरी बन गए प्यास ...

अधरोंसे लेकर मेरी हयात का

एक जर्रा जर्रा जल गया है उस तपिशसे

लागे मै जैसे बैसाखमें तपती धरती ....

सुलग रही हूँ कहीं एक बूंद बारिश मिल जाए ....

वो बूंद नितांत शुध्ध , ना स्वाद ,ना गंध ,ना रंग ,ना चुभन ,

बिना सिलवट का सरक रहा हो जैसे रेशम ....

वो पानी ...

वो पानी में छुपी है एक कशिश

बस वो शबनमकी बूंद

तेरी मुझे तलाश ...

घूंट घूंट बन मेरे अधरोंसे

मेरे जर्रे जर्रे में दरिया बनकर

समां जा ....समां जा ...समां जा ....

मेरे सुलगते सपनोकी प्यास

बुझा जा ...बुझा जा ...बुझा जा ....

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