रात को जुगनूको ढूंढना था ,
मुझे क्या पता वो पत्तोके दरीचो पर आरामसे सोया था ,
ढूँढते हुए उसकी रौशनी पर पांव पड़ा ,
चीखा वो जुगनू मुझ पर अय अंधे ! दिखाई नहीं देता ?
आश्चर्यसे मैंने पूछा तुम भी सिख गए क्या इंसानोंकी भाषा ???
फिर रुक कर कहा मुझे उसने क्या करें
मोटर की हेड लाईट में हमारी रौशनी दब जाती है ,
होरन्न की आवाजमें कहाँ हमारी मरण चीख सुनाई देती है ???
बस इक्के दुक्के तुम जैसे कभी मिल जाते है
तो हम भी इन्सानोको उनकी भाषामें संदेस पहुंचा देते है ,
देखो ये जमीं ये धरती ये दुनिया सिर्फ तुम्हारी मिलकियत नाहीं ,
वसीयतमें ईश्वरने हमारे नाम भी की है कुछ भाग बंटाई .......
बस्ती खुद की बढ़ाते रहते हो और हमारी मिलकियत में घुस जाते हो ....
और फिर हम पर धौंस जमाते हो ?
याद रखो आप अकेले नहीं जी पाओगे
गर हम नहीं रहे तो नामोनिशान खुद का भी तुम खुद ही मिटाओगे ????
bahut sundar baat kahi.
जवाब देंहटाएंBahut hi sundar kavita. Nav varsh ki hardik shubhkamnay.
जवाब देंहटाएंबहुत खूब। बहुत अच्छी रचना। बधाई।
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