अय नज़्म आज तेरी नजाकतके नाम :
पलकोंका भी बोज लागे तोरे नयननको ,
खुले बोजिलसे जब उठे लिए लालिमा .....
तोरे होठ खुले जब कांपने लागे है लब्जोंका जैसे लिए हो बोज ,
तेरी हलकसे कुछ सूर आ पाये बहार और कुछ हवामें घुले .....
तेरी आवाज है कोकिल का माधुर्य समेटे हुए ...
जैसे सुरीली बांसुरी कोई मधु का रस घोले कानों में .....
नजाकत तेरे बोलोंमें सिमट कर आए जैसे ,
कोमल घास भी निशाँ बनाकर जाए तेरे पाँव पर ......
सुबहकी धुपमें जो छलके पसीना तेरे चेहरे पर
जैसे शमा घुल रही हो जो अब तक जली भी नहीं ....
तेरे समीप बैठकर तुझमे पुरा ध्यान लगाकर बैठे हम ,
इस दुनियासे बेसुध हो बेखबर हो
जैसे डूबे जा रहे हो एक अनंत आनंद के गहरे सागरमें ....
अय नज़्म तू दुल्हन मेरी सिमटी हुई मेरी किताबके सफे पर ...
हर वक्त नया अर्थ दे गुजरती जब इस सफे पर आ कर रुक जाऊं ...
अच्छी रचना। बधाई।
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