आज हमें देखकर आयना भी परेशां सा लगा ,
उसे भी बदले बदले से नजर आने लगे थे ...
अपने ग़मोंको हम एक हँसी के दामनमें लपेटे चले थे ,
क्या कहे जो जीने की वजह थे वो ही मुंह मोड़े जा रहे थे ....
बस हम तो टूटे खिलौनेसे पड़े हैं घरकी फरस पर बिखरेसे ,
खेले थे हमारे जज्बातोंसे खुदका दिल बहलानेको कभी
और मतलब निकल जाने पर
आज अजनबीकी तरह आँख चुरा कर चले जा रहे थे .....
बस हम तो टूटे खिलौनेसे पड़े हैं घरकी फरस पर बिखरेसे ,
जवाब देंहटाएंजिन्दगी में ऐसे कई अनुभव हमें मिलते हैं। अच्छी भावाभिव्यक्ति।
वाह, क्या बात है!
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