22 नवंबर 2009

बच्चे ...

एक छोटासा बच्चा

खड़े होनेकी कोशिशमें गिर जाता बार बार ,

न हार का आभास न जीत का

उसे तो बस कोशिश पर था ऐतबार ......

खिलखिलाकर हंस देना ...

और वें वें वें करके रो देना ....

रोटी हो या मिटटी उसके लिए एक समान

नींद आ जाए तो क्या दिन और क्या रात ....

हर सुख या दुःखसे उसके लिए एक समान ,

पानीमें छपाक छाई करनेसे खिल जाए चेहरे की मुस्कान ....

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जब ये देखती हूँ छोटे छोटे बच्चो को खेलते हुए अहातेसे अपने तो सोचती हूँ की क्यों बचपन को जिंदगी का सुवर्णयुग कहा जाता है ? बस हर चीज जरूरत के हिसाबसे ..न कुछ ज्यादा न कुछ कम ....गिरने का डर नहीं और उठ जाने पर अभिमान नहीं ...जिंदगीसे मुस्कराहट की कोई उधारी नहीं ...एकदम स्वाभाविक जीवन ...उसमे कहीं बनावट नहीं ...फ़िर हम क्यों बदल जाते है ? क्यों इतने उलज जाते है ?...क्यों हमें गिरने से डर लगता है ...क्यों हम दोबारा उठ खड़े होने की कोशिश करना छोड़ देते है ???? क्यों महत्वकांक्षाएं हम पर हावी होकर हमारा जीना हराम कर देती है ????

इस क्यों का जवाब सिर्फ़ हमारे पास ही होता है ...कोई किताबमें उसका हल नहीं ....बस कुछ पलki फुर्सत नहीं है ...

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