नहीं कोई मजहब का मोहताज ये दिल जब इबादत करनी हो ,
जिस रूपमें मिल जाए वो हर जगह सिर्फ नूरके रूप नजर आता है ,
कुछ अल्फाज़ होते है जो कागज़ पर सिर्फ लिखे रह जाए तो
किसी बेवा के अश्कोंसे सिसकते लगते है ,
जब किसी रूहानी आवाज उन लब्जोंका दामन थाम लें
और दिल के तार छेड़ते हुए कोई साज़ उसका साथ बनकर
आये तो उस आवाज़ में देखो तो अल्लाह या इश्वर की शकल नजर आ जाए ....
sahi majhab tho saare ek hai,dua mange ya prarthana,uparwala sab sun leta hai.
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