13 दिसंबर 2008

शहरकी जिंदगी की एक कहानी ....

हम सभी यही समजते है कि कल्पनाओं की दुनियामें उड़ान भरते हुए जो कलम एक रूप धारण कर लेती है वही एक कहानी या कविता बन जाती है .ये सच है लेकिन अधूरा ... कोई भी कल्पना एक ठोस हकीकत से हमेशा जुड़ी हुई होती है .
शहरका इंसान जो जिंदगी जी रहा है वह कोई कल्पना से भी ज्यादा रोमांचक है लेकिन यहाँ ये सब फुरसत किसे है ? बस इसे एक बार गौर से देखिये . हमारे दृष्टिकोण में एक फर्क आ जाएगा .
हम इंसानों को भगवान ने बहुत ही महत्वकांक्षी बनाया है .हमारी तृष्णा का कोई अंत नही होता . हम वर्तमान में जहाँ पर है वहां से आगे की ही सोचते रहते है .उस आगे वाले मुकाम को पाने के लिए कोई रास्ता चुन लेते है ,चाहे वो नैतिकता के अवमूल्यन के बाद ही मिल सकता हो .
एक सवाल है यहाँ पर . इन सबके अंत में क्या ? रोड पति से खरबपति के सफर में आखरी मकाम पर एक अहम् की परीतृप्ति को छोड़ कर कुछ भी शेष नहीं बचता. मंजिल पा लेने पर दौड़ने की जिजीविषा भी समाप्त हो जाती है . जिन्दगी ठहर जाती है .उस वक्त पहली बार सही मायने में हमें ख़याल आता है कि हम यहाँ तक पहुँच पाने के लिए पीछे क्या क्या छोड़कर , गंवाकर आए है?महानगर के कामकाजी मातापिता क्या अपनी संतान का पहला कदम , पहला शब्द सुनने का सौंदर्य देख पाये है ? अपने मासूम कि तोतली जबान से तोता मैनाकी टीचरवाली कहानी सुनाने का वक्त और आनंद आपके पास है ?
अपने बच्चोंके प्रति अपने सभी दायित्व को गरिमापूर्ण तरीके से पुरा करने के बाद एक हसीं जीवन संध्या की और बढ़ते हुए कदमों को साथ चलने के अपेक्षा मनमें रखनेवाले माँ बाप के कदमों में अब अपने नाती पोतों को बड़े करने के जिम्मेदारी डाली जाती है जिससे कामकाजी पतिपत्नी ' दो जून की रोटी' या 'एशोआराम के साधन ' अपने लिए जुटा पाएं .क्या उनके बूढे कंधे इस दायित्व को निभाने के लिए सक्षम है भी या नहीं ये सोचने की शायद उन्हें जरूरत नहीं .......
इन शहरी जिंदगी में दौड़ते भागते इन महत्वकांक्षी इंसानों के जज्बातों को नजदीकसे पढ़ने की कोशिश में हर नई कहानी का बीज मिल जाता है .......

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