31 मार्च 2010

बस यूँही आज

पुकारा मुझे सदा देकर उन्होंने

हमें भी अरमान थे उनसे मिलने के ...

पर ये कदम रुकसे गए

पर ये कदम जमते गए

और ये कदम रुक गए

ख्वाहिशोंकी लौ जलने लगी यूँ

मिलनकी तलब लिए ये साँसे भी पिघलने लगी

पर ये क्या ,

चलने को बेकरार कदमोंको वक्त की बेड़ियाँ जकड़ने लगी ...

सोचती हूँ क्यों हुआ ऐसे इस बार ?

उनके जहनमें रहना चाहा है हरदम एक याद बनकर हमने ...

उनको भी साँसोंमें बसाकर रखा है ...

आँखोंमें नूर बनकर चमकती है वहांसे आती महक उनकी ...

आवाज मेरी होती है पर अल्फाज़ उन्हीके होते है ...

बस एक अरमान यही अब तो ,

जवान रहे उल्फत हमारी यूँही

एक आवाज बनकर ....

एक इंतज़ार बनकर ....

2 टिप्‍पणियां:

  1. चलने को बेकरार कदमोंको वक्त की बेड़ियाँ जकड़ने लगी ...sundar abhivaykti

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  2. पुकारा मुझे सदा देकर उन्होंने

    हमें भी अरमान थे उनसे मिलने के ...

    .....koun kahta hai ki aapki maatribhashaa hindi nahi hai.?

    जवाब देंहटाएं

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