धूएँ धूएँ सी उठी है बेतरतीबसी लकीरें कुछ ,
इस शहरकी अटपटी गलियोंसे ....
झख्म हर रोज एक नया हरा होने को मिल जाता है ,
नया साज़ लेकर भरे हुए नासुरोंको छेड़ जाता है ......
बेरंग लग रही है मुझे ये खिड़कियाँ ,
ये दरवाजें ये दीवारें बदरंग
इस किराए के मकानकी
जहाँ हरदम खौफसी सन्नाटेकी गूंज सुनाई देती है ..........
क्यों ?
क्यों कोस रहे हो इस शहर को ?
इस मकानको ,इस गली को दे रहे हो गाली ?
जिसे कभी एक पल के लिए भी तुमने अपना माना ही नहीं ....
अनसुनी कर दी है हर वो सदा
जिसे अनजानोंने दी थी तुम्हे अपना समज कर ....
उनकी सदा जिन्होंने दिल खोल कर एक गैर को अपना जिगर माना ,
पर तुने बेमुरव्वत सिर्फ़ अपने शहर को ही अपना माना ....
कई बेकसूरोंको तुने तुझसे प्यार करने की सजा दी है
उनका कसूर सिर्फ़ इतना था की तुझे उन्होंने पनाह दी है .......
जा ......चला जा वहीं ....
लौट जा वहीं जहाँ से तू आया था ....
और कसम है तुझे जो कभी भूलेसे हमें याद भी किया ,
और हमारे प्यारको भरे बाज़ार तुने ज़लील किया ........
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