28 अप्रैल 2009

सैर पर चलते है ....

वो रेल की पटरी पर दौड़ती हुई ट्रेन को एकटुक देखा थोडी देर के लिए ,
न मंजिल के पास थी वह न मंजिल से दूर कहीं बस गति से बहती सरपट ....

एक मंजिलसे निकलकर वह दुसरे स्टेशन पर जाती रहती है ,
न कभी थकती कभी न हांफती नज़र आती है ,बस वह तो चलती जाती है ......

वो अपने पेटमें बिठाकर इंसानोंको मकाम तक पहुंचाती है ,
बिना नदीमें नहाकर बस पूल परसे छलांगे लगाकर भागती है .......

कभी पहाडियोंमें अंगडाई लेकर इठलाती चलती है ,
कभी जमींके अन्दर भी छुपकर दौड़ने में उसे मज़ा आती है ..........

वो दाल के ठेले ,या समोसे के मेले , डब्बे का आइसक्रीम या चीजोंके रेले ,
चलती फिरती दुकाने अपने में चलाकर कई पेट को पालती है ........

खिड़की वाली सीट पर बैठकर दुनिया की सैर करके देखो ,
जवानीमें बचपनकी और बुढापेमें कई गुजरी कहानी याद दिलाती है ....

4 टिप्‍पणियां:

  1. खिड़की वाली सीट पर बैठकर दुनिया की सैर करके देखो ,
    जवानीमें बचपनकी और बुढापेमें कई गुजरी कहानी याद दिलाती है .... waah kya gehri baat keh di,bahut sunder

    जवाब देंहटाएं
  2. रेल को लेकर इस तरह से भी सोचा जा सकता है, यह देख कर अच्छा लगा। अपने विचारों को हमारे साथ साझा करने के लिए आभार।
    ----------
    TSALIIM.
    -SBA-

    जवाब देंहटाएं

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