8 फ़रवरी 2009

कारवां ये सफरका था एक तलाशमें ..........




साहिल पर वो निशां बाकी है अभी

दो कदम तुम्हारे थे दो कदम हमारे थे ....

साथ साथ बहते रहे ,चलते रहे यूँही हम ,

पैरोंमें सागर की मौजे सहलाती रही हरदम ,

ठंडी हवाओके नर्म झोकें जुल्फोसे तुम्हारी खेलते रहे .....

साथ साथ रहकर साथ साथ चलकर भी

तनहा तनहा से हम यूँही मिलते रहे ......

कारवां ये सफरका न जाने किस तलाशमें है ???

दरिया को तैर कर आ गए और साहिल पर हम डूबते रहे ........


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आपकी राहोंमें फूल बन कर बिछ जाने की चाहत थी हमें ,

गम नहीं की फूल चुनते हुए हथेली ये काँटोंसे लहूलुहान हो गई .......

2 टिप्‍पणियां:

  1. वाह भाई वाह ...बहुत खूब ...

    साथ साथ रहकर साथ साथ चलकर भी
    तनहा तनहा से हम यूँही मिलते रहे ......

    अच्छी रचना ......पसंद आयी

    अनिल कान्त
    मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

    जवाब देंहटाएं

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