27 मई 2016

कभी खुद से

कभी खुद से नजर मिलाने की खता हो गई,
लगता है अब एक अजनबी से मुलाकात हो गई.
मैं देखती रही अक्स को अपने पुकार कर
नाम मेरा ही था फिर भी आवाज नई लगी.
अन्जान शहर की गली पहचानी सी लगती है,
अपनों की ही भीड़ है जिसमें मैं बेगानी लगने लगी.

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