वक्त के गुल्लक से रोज
एक सिक्का निकलता है दिन बनकर ,
बस इस सिक्के को खर्च करते हुए
जिंदगी बन जाती है ....
उस सिक्के को खर्च किस तरह किया
वो हिसाब तो हर रोज लिखा जाता है ,
पर कभी उस पर नजर ही नहीं जाती है
जो हर दिन लिख नियति बन लिखे जाता है …
न दिन आता है हमारे पास मनमांगी मुराद लेकर ,
न कभी दबे दर्दको खरोंचने की ख्वाहिशें लिए …
वक्त के गुल्लक से दिन का सिक्का लेते हुए
हमें भी एक सिक्का उसमे डालना होता है …
उस दिन के हर कर्म का हिसाब लिए हुए ....
बैंक में जमा पूंजी न इसमें काम आती है ,
यहाँ तो काफिरों ने की हुई
सच्ची दुआएं भी असर कर जाती है …
इस गुल्लक को बाहरी सजावट की जरुरत नहीं
जो हम रोज उस पर करते जाते है ,
उसकी अंदरुनी सफाई भुलाई जाती है
जो इंसानी जज्बातोसे
तवारीख के सफों पर लिखी जाती है
एक सिक्का निकलता है दिन बनकर ,
बस इस सिक्के को खर्च करते हुए
जिंदगी बन जाती है ....
उस सिक्के को खर्च किस तरह किया
वो हिसाब तो हर रोज लिखा जाता है ,
पर कभी उस पर नजर ही नहीं जाती है
जो हर दिन लिख नियति बन लिखे जाता है …
न दिन आता है हमारे पास मनमांगी मुराद लेकर ,
न कभी दबे दर्दको खरोंचने की ख्वाहिशें लिए …
वक्त के गुल्लक से दिन का सिक्का लेते हुए
हमें भी एक सिक्का उसमे डालना होता है …
उस दिन के हर कर्म का हिसाब लिए हुए ....
बैंक में जमा पूंजी न इसमें काम आती है ,
यहाँ तो काफिरों ने की हुई
सच्ची दुआएं भी असर कर जाती है …
इस गुल्लक को बाहरी सजावट की जरुरत नहीं
जो हम रोज उस पर करते जाते है ,
उसकी अंदरुनी सफाई भुलाई जाती है
जो इंसानी जज्बातोसे
तवारीख के सफों पर लिखी जाती है
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