आसमांकी गरमा गर्म हवामें एक खूंटी पर
टांग दी गयी हो जैसे मेरे घर की छत ...
मुंडेर पर ठहरा घडी भर एक परिंदा
थोड़ी सी छाँव की आस में ...
मट्टी के मटकेसे रिज़ रही थी कुछ गलते जल की बुँदे
जैसे मटके को भी पसीना आ रहा था .....
बस उस बूंदोंसे प्यास बुझा कर अपनी
वो पर फडफडाते हुए उड़ गया गगनमें दूर कहीं ....
और इस पर हँसते हुए सूरजकी
खिल्खिहत गूंजी ख़ामोशीका लिबास पहने ...
आगकी कुछ और तेज लपटें उगली गयी उस पर
और ये गर्म बैसाख कुछ और झुलसा गया ......
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