रातके पिछले पहरमें
एक शीतल स्पर्श मुझे जगाता है....
आंखे खोलकर जब देखा
खिडकीके बाहर आसमानमें
आधा वो चांद मुझे बुलाता है.....
कुछ अपनी सुनाता है, कुछ गुनगुनाता है...
अनकही अनसुनी बातोंका दौर यूं ही चलता है....
वो सुननेके लिये दबे पांव सूरज भी आ जाता है
तब चांद शरमाकर उसकी रौशनीके दामनमें
फिर आनेका वादा करके
एक बार और छुप जाता है......
इंतजार है मुझे फिर उसके आनेका,
पर नींद पर ऐतबार नहीं,
शायद वो अपने दामनसे मुझे छोडे ही नहीं,
चांद आकर भले बुलाता रहे ,
मेरी आंखोसे अपना कबजा वो छोडे ही नहीं......
चिंता छोडो जो भी हो ...
बस याद को वो चंद लम्होंकी
जहनमें सजाता है.....
फिर एक बार हम भी चांद
तुमसे मिलने यूं ही आयेंगे.........
bahut sundar....
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण कविता...बहुत अच्छी...वाह...
जवाब देंहटाएंनीरज
sundar bhav
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना के लिए धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना के लिए धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंwaah sundar
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