14 अक्तूबर 2015

दूर की आस रहे

 एक सहर का इंतज़ार तो एक शाम भी करती है  ,
लेकिन ये नियति है की रात बीच में रहती है  …
बस नदी के दो किनारे की तरह दोनों रहते है ,
सहर ख्वाबों को मुकम्मिल मक़ाम देती है  ,
और शाम रात के कानों में वो ख्वाब कहकर ,
रोज अपने घर सूरजको सुलानेलौटती है   .......
सूरज खफा है वो अकेला क्यों रहता है ,
चाँद को किस्मत तो देखो वो तारों से खेलता है !!!
और रात तरसती है वो उजाले को
जो सूरज लेकर रोज आता है  ....
ये तो जीवनका दस्तूर है ,
या हमारे दिमाग का फितूर है ???
जो है पास उसके लिए हमारे प्यास नहीं ??!!!
जो हमारे पास नहीं उसको आपने की कोई आस नहीं ??!!
पास को प्यास हो और दूर की आस रहे ,
वो क्या कोई दे सकता है ??
खुद में झांककर देखो तो पता चलेगा हमें ,
जो जिसके लायक होता है उसी को वो मिलता है ,
मंज़िल पाने को कितनी शिद्दत से मेहनत की जाती है !!
वर्ना  बिन मांगे तो माँ भी कहाँ परोसती है ??!!!


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