बस खरोंचती हुई फिसलती है
ये बुँदे मेरी खिड़कीके शीशे को बाहर से ,
बस यूँही सताने बरसातकी लड़ीसे
बिखरते कोई मोती सी ,
शीशे के अन्दरसे छूती हूँ ,
गीली बूंदों की लकीरोंमें भी
फिर कोरी सी रह जाती हूँ ...
और फिर थोडा सा शीशा खोलते है
तो हवा के पंख पहनकर
जबरन मुझे छू जाती है ,
बस ये कुछ यूँ तो नहीं ??!!
जो पहले प्यार का नशा होता है !!!
दीदार को तरसती है नज़र यहाँ वहां
और सामना होते ही हया की चिलमन के पीछे
एक लुकाछिपी का मज़ा होता है ???
ये बुँदे मेरी खिड़कीके शीशे को बाहर से ,
बस यूँही सताने बरसातकी लड़ीसे
बिखरते कोई मोती सी ,
शीशे के अन्दरसे छूती हूँ ,
गीली बूंदों की लकीरोंमें भी
फिर कोरी सी रह जाती हूँ ...
और फिर थोडा सा शीशा खोलते है
तो हवा के पंख पहनकर
जबरन मुझे छू जाती है ,
बस ये कुछ यूँ तो नहीं ??!!
जो पहले प्यार का नशा होता है !!!
दीदार को तरसती है नज़र यहाँ वहां
और सामना होते ही हया की चिलमन के पीछे
एक लुकाछिपी का मज़ा होता है ???
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन क्रांतिकारी विचारक और संगठनकर्ता थे भगवती भाई - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंaapka tahe dil se shikriya is hausala afzayi ke liye ...
हटाएंप्रभावशाली रचना.....
जवाब देंहटाएंaapka bahut bahut aabhar shushmaji ..aap khud ek achchi kavyitri hai aur shayad vahan tak main abhi pahunch nahin paayi hun ...
हटाएंबहुत ही सुन्दर रचना...
जवाब देंहटाएं:-)
dhanyvad reena ji ..
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