आज दो दिनोंसे नि:शब्दसी मैं ,
ख्यालोंके बवंडरमें उल्ज़ीसी मैं ,
दिल और दिमागके युध्धमें हारी सी मैं ....
ये कुछ अलग अलगसी मैं ......
न वजह है न कोई गिला न शिकवा किसीसे ,
बस कर्म है सिध्धांतसे रूठा कहीं पर ,
एक द्वंद्व लिए दिल और दिमागके बीच का ,
एक समाधानको ढूंढती हुई सी मैं .......
एक डर है जिसकी वजह भी नहीं कोई ,
एक निराशासी लगी है जहाँ हारका नहीं नामोनिशां कोई ,
भरी भीड़के शहरमें मुझे तनहासा छोड़ दिया गया है ,
और उस भीड़में अपनेकी तलाश करती हुई सी मैं .....
खाली खाली हिलते हुए परदे
फिर भी हवाका न हो वजूद कोई ,
कोई जैसे देहलीज पर आकर मुड जाता है मेरी ,
उसे फिरसे पुकारने की कोशिशसी मैं .....
न कोई तलाश हो ,
न कोई कारवां हो ,
न कहीं मेरा नाम हो ,
न मेरा निशान कहीं कोई ,
फिर भी हर जगह दिखती हुई निशानीसी मैं ....
ख्यालोंके बवंडरमें उल्ज़ीसी मैं ,
दिल और दिमागके युध्धमें हारी सी मैं ....
ये कुछ अलग अलगसी मैं ......
न वजह है न कोई गिला न शिकवा किसीसे ,
बस कर्म है सिध्धांतसे रूठा कहीं पर ,
एक द्वंद्व लिए दिल और दिमागके बीच का ,
एक समाधानको ढूंढती हुई सी मैं .......
एक डर है जिसकी वजह भी नहीं कोई ,
एक निराशासी लगी है जहाँ हारका नहीं नामोनिशां कोई ,
भरी भीड़के शहरमें मुझे तनहासा छोड़ दिया गया है ,
और उस भीड़में अपनेकी तलाश करती हुई सी मैं .....
खाली खाली हिलते हुए परदे
फिर भी हवाका न हो वजूद कोई ,
कोई जैसे देहलीज पर आकर मुड जाता है मेरी ,
उसे फिरसे पुकारने की कोशिशसी मैं .....
न कोई तलाश हो ,
न कोई कारवां हो ,
न कहीं मेरा नाम हो ,
न मेरा निशान कहीं कोई ,
फिर भी हर जगह दिखती हुई निशानीसी मैं ....
सुन्दर भावो को रचना में सजाया है आपने.....
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