एक जानेमाने शहरने बदल दिया अपना रंगरूप ,
जैसे लगा मुझे ये तो नयी भूलभुलैया का एक स्वरूप ...
कौन दिशासे आई थी कौन दिशा जाना है ,
बस चौराहे पर बैठ ये ही सोचका आना जाना है ...
बड़ा अच्छा लगा मुझे यूँ खो जाना ,
बस जिंदगीकी इस रिवायतको खुले मनसे जी जाना ,
कंधे पर थैला लादकर घूमते रहना बस यूँ
आवारापनकी एक झलक मिली फिर
जिसको मिले बीत गए थे बरसों .....
कभी कभी यूँ भी होता है
एक अनजान चेहरा उस शहरका सामने आता है ,
वो हमें पहचानता तो है पर फिर भी भटकाता है ,
उसकी शरारतमें हम भी यूँ खिलखिलाते है ,
जैसे पुरानी बंसीमें वही सूर छिड़ जाते है खुद ब खुद ....
बहुत ही गहरे और सुन्दर भावो को रचना में सजाया है आपने.....
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