न वो राह तकती है मेरे लिए ,
न वो खिड़की भी खुलती होगी मेरे लिए ,
आबादीसे दूर एक खंडहरमें
मेरे कदमोके निशाँ वो आकर चूमती होगी .....
वो खलिश ,वो तपिश आज कहाँसे लाऊं ?
जो बुझ चूका है वो दिएकी लौ कहाँसे लाऊं ?
बस बिक चुकी ज़मानेके हाथो चंद रुपयोंके लिए ,
वो मेरे बचपनके घरकी ईंट कहाँसे लाऊं ???
आज वो पेड़ और पौधे मेरे इंतज़ारमें है ...
आज भी टूटे हुए झूले पर कोई तो आकर झूलता ....
बस आज शिकायत इतनी है की
वो सारी यादोंको फिरसे जीने के लिए
तन्हाई कहाँ से लाऊं ????
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें