ये पतज़दका मौसम मेरा हाथ छोड़कर जा रहा है ,
बहुत घने पेड़ने भी अपने पत्तोके परिधानको छोड़ ,
खुदको बर्फसे नहला लिया ,ठंडी ठंडी हवाओसे खुदको सिहरा लिया ,
पर सूरज भी चलो आज गहरी नींदसे जाग गया ,
उसे भी देरसे जागनेका अपना अपराध याद आ गया ....
देखा आँखे खोलकर उसने तो
दूर दूर फिजायें बाहें फैलाकर खड़ी थी ,
नयी बहारोंकी नज़र उसकी राहों पर गडी हुई थी ...
वो सूखे पत्ते मंद समीरके झोंकोके संग
नयी दुनियाके नज़ारे देखने बेताबसे चल पड़े ....
वो टहनीकी दीवारोंको नोच कर
छोटे छोटे सुराख़ बनाकर कोंपले भी
झांक रही है ये हुस्नके नज़ारे को .......
वो छोटी छोटी कलियाँ कैसे फूल बनने व्याकुल है !!!
जैसे किसी अभिसारिकाको अपने राजकुमारका इंतजार है !!!!
कामदेवने भी अपने धनुषबाण फूलोंसे सजाये है ,
रतिके शृंगारका सामान भी बहारसे ही जुटाया है ,
ये प्रकृति का त्यौहार है शृंगारसे भरपूर ...
अय मानुष !! आज देख ये प्रेम रससे निखरी प्रकृति के रंग विशेष .....
सुंदर अभिव्यक्ति..
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