24 अक्तूबर 2010

वो बरगदका पेड़ घना ...

उनसे मिलनेको दिल कर रहा बड़ा
कितने अरसेसे उन्हें मिले नहीं
पता नहीं मेरे पास उनका
कोई उनके शहरका नाम नहीं
यादोंकी बस्तीमें आशियाना था उनका ,
एक बरगदके पेड़ के नीचेकी चौपाल ,
शाख पर बैठे घरौंदेमें पंछी
हमारे मिलनके है साक्षी
हमारे दिलकी बातें उन्हें भी समजमें आती
एक दिन ....
एक दिन .....
उन्ही पंछीके घोंसलेसे बड़े हुए बच्चेकी तरह
हम उड़ गए दूर ....
अपने अपने आकाशकी तलाशमें दूर दूर ...
आकाश के एक सिरे को दुसरे छोर की तलाश अब
चलो एक बार उस चौपालसे जाकर पूछ लूँ
क्या वो आये थे ,क्या किसी टहनी पर पता छोड़ गए थे ......???
मैं उस छोर पर था वो इस छोर पर बरगद की छाँवमें
टहनी पर पता ढूंढते ढूंढते एक दूजे से टकरा गए .....

2 टिप्‍पणियां:

  1. एक आस था ,विश्वास था

    अब ठूंठ रह गया हसरतों का


    आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (25/10/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा।
    http://charchamanch.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
  2. खूबसूरत अहसासों को पिरोती हुई एक सुंदर भावप्रवण रचना. आभार.
    सादर
    डोरोथी.

    जवाब देंहटाएं

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