18 अक्तूबर 2010

वक्त .....

उस टूटे हुए खंडहरकी टूटी दीवारों पर
कुछ कुरेद कर देखा
अनकही दास्तानोंकी किताबें थी ,
पढ़ते पढ़ते रात गुजर रही ,
ना उजाला था ना शमाकी ज्योत ,
सोचा अँधेरे को पढने अँधेरे को ही रौशनी बना लेते है ....
कान में फुसफुसा कर बीते सुनहरे पलोंको उजागर करती रही ,
ख़ामोशीसे अश्क भी बहते रहे उसकी दरारोंसे ,
कही अनकही हर दास्ताँने कहा
यहाँ कायम कुछ नहीं वक्त के सिवा ...
वक्त आता है वक्त जाता है
हर लम्हे पर अपना निशाँ बनाते चला जाता है .....

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