कभी मन करता है बस ,
कम्बलमें लिपट कर आँखें यूँ मीच ले जैसे सुबह हुई ही नहीं ....
नींद भी आ गयी ...फिर एक के बाद एक आवाज आने लगी
शोर का नकाब ओढ़कर ...ठण्ड की सिरहनसे ये नहीं कांपती ...
बस अपने वजूद को दिखा देने का मौका कब मिले
येही दिन भर भांपती रहती है ....
बस शोर के बीच कभी बुलबुल चहक उठी
मेरे घर में भूल से आ गयी थी ...
इस मेहमान को मिलने मैं भी दीवानी बेतहाशा दौड़ पड़ी ....
बस एक छोटा सा मुखड़ा गाकर वो भी वहांसे चल पड़ी ....
बहुत शोर था ...कोहराम था ...पर ....
पर ....
एक कशिश थी उस बुलबुल के गानेमें
जो मुझे बरबस उसका वजूद जताकर गयी ...
अभी भी इंतज़ार है ....उसका ...बुलबुल का ....
बस शोर के बीच कभी बुलबुल चहक उठी
जवाब देंहटाएंlajwaab.......rachna.
बहुत खूब लिखा है .....बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंकविता दिलचस्प है।
जवाब देंहटाएंवह मेहमान ज़रूर आयेगा ...
जवाब देंहटाएंबहुत भावपूर्ण!
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