शामका बहेका बहेका सा मौसम था ही ,
बिलकुल बर्फसे सिली हवाओंका दौर था ,
ना हुआ था कभी फिर भी आज
उत्तरायणके दिन हवाओं का जोर था ....
पतंग को घसीटके ले जाती थी अपने संग
और उँगलियों पर खून के निशाँ भी बना देती थी मांजे के संग ....
मेरी नज़र का पेच लड़ा उस वक्त एक पेड़से ,
अरे कितने सारे लाल हारे नीले पीले पतंगों का मुकुट सजाकर
इतरा रहे थे जनाब !!!
कहे रहे थे देखो जनाब हम भी जश्न मनाते है तुम्हारे संग
घोंसलों में कैदी परिंदे आज के दिन उनको पतंग देते है
और बहलाते है ,सहलाते है कटे पंखो के दर्दको भी .....
दिवाली तो नहीं थी फिर भी रोशन हो रहा पूरा आकाश
जैसे रात को भी थी आज एक जश्न की तलाश .....
बहुत बढ़िया.
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