नए फुनवाकी घंटी जब बजत थी ,
मन मयूर नाच जाता था ,
बिन मतलब हमार ऊँगली भी ढूंढ़ ढूंढ़के नम्बरवा घुमावत थी ,
पड़ोसी को दौड़ दौड़ बुलावा भेजत थे और सबको हमारा नंबर लिखवाते थे ......
आज वक्त बे वक्त ये फुनवा हमें दौडाता है ,
कभी नींद से जगाता है तो कभी स्नान या शौचालयसे भी निकलवाता है ....
जिंदगीके सारे झूठ बोलना ये हमें सिखा गया है ,
साफ़ सुनाई दे फ़िर भी नेटवर्कवा को भी ख़राब बुलवाता है ,
कभी रोंग नंबर कहकर बात टालते है ,
कभी फोनको दुश्मन कहकर पटक जाते है ...
पर एक आवाज हमें डरा जाती है वो जब सामने बीवी हो ,
ये वही आवाज हुआ करती थी जिसे सुनने हम रात भर जागा करते थे ....
सुन्दर रचना के लिए बधाई
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चाँद, बादल और शाम