इंसानियतकी तलाशकी चाहत लिए गली कूचोसे गुजर रहे है ,
इंसान तो मिलते है पर जैसे खोखले शरीर रूहके बिना ,
पैसोंने खरीद ली है इंसानियत उनकी जरा भी उन्हें गम नहीं ,
बस हम अब हम तो है पर कुबूल है की अब हम हम ही नहीं ....
नोचकर देखे हमारे जिस्मसे ऊपर का नकाब
तो लहू तो सबका लाल ही निकला है ...
पर पता नहीं ये वहशीपनका कहाँसे हिसाब निकल चला है ,
बिना छुरी चलाये अब ये भी हम कर जाते हैं ,
सड़क पर घायल को अनदेखा कर हम आगे चले जाते है ....
ऊपरवाले से डरना क्या ? हमने ये पाप कहाँ किया है ?
आपके धर्मस्थान पर कल ही लाख रूपये का चेक दिया है ......
बहुत सही। आज की हालात पे तीखा व्यंग्य। सबका खून तो एक ही रंग का है पर ढ़ंग जुदा-जुदा।
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