24 अक्टूबर 2009

मेरे वतनकी मिटटी ....

खेतों के हरे दरीचों पर लहलहाती वह फसल ,

सौंधी सौंधी खुशबू जो तर कर रही थी नशेसी ,

खुले पाँव ही उबड़ खाबड़ पगडण्डी पर चलते ,

मैं अपने वजूदसे दूर वतनकी मिटटीमें घुल गया ........

गोबरसे सनी वो दिवाले ओपले बनकर ,

भैंसके गाढे दूधकी धारा ,मक्खन मथते हुए वो संगीत ,

चूल्हे पर चढी हुई वो सरसों दे साग दी खुशबू ,

न कभी ऐसी भूख लगी ,न कभी ऐसी तृप्ति हुई ........

एक छोटीसी चारपाई पर एक दरी पर ,

हाथोंका तकिया बनाकर आसमानमें तारों से बातें ,

एक नन्हींसी परी का सपनेमें आना और

हमें गहरी नींद सुला जाना .....

ऐसा जीवन एक दिन पा जाना और सारे गम भुला जाना ......

घर आकर वो मैली जींस की पेंट निकाली ,

धूल से सनी थी मेरे वतन की ,

ब्रशसे सारी मट्टी झाड़ दी फर्श पर और

फ़िर हथेलीसे इकठ्ठी करके एक डिबियामें बंद कर दी .....

मेरे वतन की याद को ....

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