किनारों को शिकायत है दरिया से ,
हम प्यासे क्यों हमेशा से ....
पानी ने कहा चुपके से कान में ,
तुम्हारी मर्यादा तुम्हे रोकती है
मेरी मर्यादाएं मुझे रोक लेती है ....
फिर भी कभी बारिश के पानी से
नहीं देखा जाता ये ..
आस और प्यास का खेल हमारा
किनारों को तोड़कर मैं भी आ जाती हूँ ...
तुम डूब जाते है और मैं तैर जाती हूँ ...
सुखे हुए फूल रौंदे जाते है जमीं पर ,
रोते होंगे वो भी पर आंसू सुख जाते होंगे ,
कैसे प्यार से गले लगाती है धरती उन्हें ,
वो भी धरती की गोद में घुल जाते है ....
एक इंसान ही तो है की भरम में जिए जाता है ,
औरों के सुख को अपना दुःख बना लेता है ,
और अपने दुःख को दुसरो के सुख के बदौलत है
ऐसा करार देता है ...
हम प्यासे क्यों हमेशा से ....
पानी ने कहा चुपके से कान में ,
तुम्हारी मर्यादा तुम्हे रोकती है
मेरी मर्यादाएं मुझे रोक लेती है ....
फिर भी कभी बारिश के पानी से
नहीं देखा जाता ये ..
आस और प्यास का खेल हमारा
किनारों को तोड़कर मैं भी आ जाती हूँ ...
तुम डूब जाते है और मैं तैर जाती हूँ ...
सुखे हुए फूल रौंदे जाते है जमीं पर ,
रोते होंगे वो भी पर आंसू सुख जाते होंगे ,
कैसे प्यार से गले लगाती है धरती उन्हें ,
वो भी धरती की गोद में घुल जाते है ....
एक इंसान ही तो है की भरम में जिए जाता है ,
औरों के सुख को अपना दुःख बना लेता है ,
और अपने दुःख को दुसरो के सुख के बदौलत है
ऐसा करार देता है ...
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन भवानी प्रसाद मिश्र और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंसुन्दर।
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