29 मई 2010

बैसाख की पूर्णमासी

एक चांदनी रातमें चंद फुहारोंको खुद पर बहाकर

इस बहती हवाओंमें श्वेत परिधान किये

श्वेत चादर पर खुदको बिछाकर

बस नींदके दामनमें सरक जानेको जी किया ....

गगन पर निकला वो पूनम का पूरा चाँद

कुछ इश्कियाना मिजाज़ लिए मुझे छेड़ने आ गया ...

आज कुछ मुझसे भी बोलो ,राजे दिल हम पर भी खोलो ....

विस्फारित नयनोसे मैं उसे तकती रही

उसकी नर्म चांदनीमें खुद को बरबस भिगोती रही ....

चाँदने कहा - तुम्हारी भीगी झुल्फोंकी बूंदों की शबनम पिने दो आज

तुम्हारी हलकीसी हँसी को मेरे दिल में बस भी जाने दो ...

नींद बड़ी ही खुशनसीब है रोज तेरी आँखोंमें रात आकर बस जाती है

आज सारी रात जागकर तुम मुझसे गुफ्तगू करने में बिताने दो .....

अगली पूर्णमासीको शायद मैं बरखाके बादल ओढ़कर आऊं ....

और छत पर लेटी हुई इस मासूमसी हँसी सूरत अगले साल देख पाऊं ....

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