हाथकी लकीरों पर कल निगाह गई ...
बचपनसे साथ रही है शायद जन्मसे ही है .....
कहते है इस रेखामें मुकद्दर छुपा होता है .....
रेखोमें नहीं लकीरों में नहीं मुकद्दर नहीं होता ,
जो होता है वो तो हमारे हाथमें ही होता है ,
पैरों का साथ होता है और तक़दीर बदल जाती है ,
पर अपनी मायूसी को ,बेबसी को ,नाकामी को
कोसने का कोई बहाना चाहिए होता है
तब अय हाथ की लकीरों हम तुम्हे दोषी बता देते है .....
इस लकीर में ही पढ़ा था हमने तुमसे मिलना है ,
इसी लकीर में लिखा था हमें जुदा भी होना है ....
तुम्हारे मिलने पर हम यूँ हुए गूम की
जुदा होना पढ़ ना पाए थे और दोषी किस्मत को बताये थे .....
पर अपनी मायूसी को ,बेबसी को ,नाकामी को
जवाब देंहटाएंकोसने का कोई बहाना चाहिए होता है
तब अय हाथ की लकीरों हम तुम्हे दोषी बता देते है .....
bahut sahi kaha,apni galati hum kismat ya lakiron ke mathhe madh dete hai,shayad khud ko console karne ki koshish karte hai...bahut khub
जो होता है वो तो हमारे हाथमें ही होता है ,
जवाब देंहटाएंपैरों का साथ होता है और तक़दीर बदल जाती है ,
बहुत सुन्दर कविता हैं प्रीति जी