21 मई 2009

कुछ उलझा फ़िर भी सुलझा सा ...

बंध पलकोंमें झांखते है कभी ऐसे दिल के आयने में ,

खुद की खुद से कशमकश सुलज़ जाती है ,

किसी बेकसूरसे की गयी नाइंसाफीको रहमे करम अदा करते हुए

हाले दिल इश्कमैं क्या है वो बात शायरीमें बयां हो जाती है .....

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इश्क हमारा किसीकी रहमोकरमकी पनाहमें नहीं

हम जानते है किसीको शिद्दतसे इश्क करना कोई गुनाह नहीं ,

ये मंज़र है प्यार का ,जहाँ पर गुनाहगारकी हर खता माफ़ की जाती है ,

और कभी बेकसूरको उम्रभर तड़पनेकी सजा फरमाई जाती है .....

2 टिप्‍पणियां:

  1. 'कुछ उल्ज़ा फ़िर भी सुलज़ासा 'को आप edit कर लें , कुछ उलझा फिर भी सुलझा सा , शायद यही आप लिखना चाह रही हैं | उलझा के लिए uljha type करें व सुलझा के लिए suljha , बंद के लिए band , झाँकते के लिए jhankte | माफ कीजियेगा , दखल-अन्दाजी के लिए , ऐसा लगा कि typing mistake की वजह से सही शब्द सामने नहीं आ पा रहे |

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  2. ये मंज़र है प्यार का ,जहाँ पर गुनाहगार की हर खता माफ़ की जाती है,
    और कभी बेकसूर को उम्र भर तड़पने की सजा फरमाई जाती है...

    सच ही कहा है आपने....

    जवाब देंहटाएं

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