तुम जब ना आए थे मेरी जिंदगीमें
कितना सुकून था सतह पर उसके तैरता हुआ ...
तुम बारिशके पानीकी तरह इस मिटटीमें घुले
बारिशकी बूंदों की तरह मुझमें समाते रहे ...
सतह पिघलती रही तुम्हारे ख्यालों की तपिशसे ...
अब ये तपिशकी धारा बन
किस और बह चलूं मैं ???
अब ये भी तुम ही मुझे बताते जाओ .......
जहाँ ढलान मिलती थी वहां बह चलती थी
जाना कहाँ नाम ना था न था पता ही मेरे पास,,,
ये भी जिंदगीका खुबसूरत मंज़र था
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें