20 मार्च 2013

कलम को

कलम को कभी देखा दुल्हन के लिबास में ,
कभी कलम शामकी चुनर ओढ़े आती है ,
कभी सिरहाने सोती है सपना बनकर ,
कभी चाँदसे बतियाती है खिड़की पर बैठी ....
कलम कभी खिलखिलाती है हँसते हुए ,
कभी कोने में दुबक कर आंसू बहाती है ...
कभी कभी वो थोड़े से शब्द को छोडती है ,
कभी कभी वो अर्थके तूफानमें उड़ाती है ,
कभी घायल करती है शब्द बाण छोडकर ,
कभी वो अर्थपूर्ण मरहम लगाती है ....
कभी कभी कविताकी श्याम चुनर पहनती है ,
कभी वो ग़ज़लकी खिड़की पर मलमली परदे सजाती है ...
कभी वो कहानी बनकर एक जिंदगी जीती है अल्फाजों की ,
कभी नवलकथामें छुपी अरमानोकी किताब बनकर
शेल्फमें घंटो बैठे मेरे हाथमे आने का
इंतजार करते हुए बस आँखे बिछाती है ...
ये कलम , दवात साथी जनम जनम के ,
एक दूजे के लिए बने है फिर जीते रहते है ,
खुद के लिए नहीं कभी ,
औरोंके दिल की भावनाओको
बहलाते है ,सहलाते है ,गुदगुदाते है ..... 

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति,आभार.

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  2. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (24-03-2013) के चर्चा मंच 1193 पर भी होगी. सूचनार्थ

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुन्दर ...
    पधारें " चाँद से करती हूँ बातें "

    जवाब देंहटाएं

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