9 मार्च 2010

परदेसिया ...

आज अलमारीके ऊपरसे एक टूटी संदूक निकली ....

धुल झाड़कर खोला अन्दर तो बैठा था उसमे मेरी संतान का बचपन ,

वो ही लुकाछिपी खेलता ,टूटे खिलौनेके भीतर बैठा ,

वो थोड़े रंगीन चोकके तुकडे भी थे ....

पसवारती रही जैसे बचपनमें गोद में लिटा कर उसके बाल पसवारे थे ....

पूरा बचपन भरा था उसका संदूकमें पर वो पास ना था ....

दूर सुदूर परदेसमें बैठा था वह अपनी परदेसी नू के साथ ,

बस अब तो डॉलरके नोट लिफाफेमें फ़र्ज़ का जामा पहनकर

कर्ज उतारती हो परवरिशका इस कदर महीने भरमें एक चिठ्ठी आती है .....

वक्त इतना महंगा हो चूका है की डॉलर भी फोन का बिल भरने सक्षम नहीं ....

तेरी तस्वीर को नहीं पोछा हमने कभी कपडे से ...

अब तो हर सहर वो आंसूसे भीगे ममताके आँचलसे पोछी जाती है ....

3 टिप्‍पणियां:

  1. kuch yaadein aisi hi hoti hain..........aur bachchon ki yaadein to maa ke jeevan ka ang hoti hain..........bahut marmik.

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  2. माँ का कर्ज़ कोई संतान नहीं चुका सकता । इश्वर से भी बड़ा माँ का स्थान हैं । आपकी रचना एक माँ की ममता दर्शाती हैं । बहुत ही भावपूर्ण लेख ।

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