22 जनवरी 2010

खिड़की का टुटा कांच ....

आज एक बेगानासा हो गया था

वो एक लिफाफा मिला ,

लिफाफेके अन्दर गुजरा हुआ जमाना मिला ,

अन्दरसे निकला एक ख़त पहचाना सा

उसके हर अल्फाज़में बचपनका सुनहरा फ़साना मिला .....

बहुत सादे शब्द थे और बहुत कम पंक्तियाँ थी लिखी उस पर

पर मुझे कागज़ के पश्चादभूमें उसका चेहरा मिला ,

खिड़की का कांच तोड़कर डाली थी चिठ्ठी पत्थरके साथ बांध

उसकी महबूबाको हमने मिलकर ,

आज उसकी और हमारी भाभी बनी महबूबाकी बेटी की शादी का न्यौता था

पर हमें तो उस ख़तमें ख़ुशीकी अश्क उसकी आँखमें

सरकते हमारे चेहरे से ये धुंधला मंज़र गिला सिला हुआ मिला ....

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