हमारा बचपन आज और कल .......
आंखों पर मोटे चश्मे होना आज आम बात हो गई है । टी वी के सामने एक कटोरे में आलू के चिप्स लेकर घंटो तक कार्टून देखना भी आम बात है । क्रिकेट अब मैदान पर कम बच्चे खेलते है और विडियो गेम्स ज्यादा खेली जाती है । स्कुल के लंच बॉक्स में मेगी नुडल्स होते है पराठे और चटनी गायब है । आज मार्क शीट स्टेटस का प्रतिक है माँ बाप के लिए उसकी सेहत नहीं । जब एक बार कभी ओलम्पिक में कोई मैडल जीते तो कुछ दिन के लिए उस खेल के बारे में दीवानगी देखी जाती है और फ़िर वो ही रफ्तार । लेटेस्ट कपड़े ,गहने ,इलेक्ट्रॉनिक चीजें और कार न होना शर्म की बात है । पर १ अबज से ज्यादा आबादी वाले देश में ओलिम्पिक में इतने कम मैडल आने की शर्म किसीको नहीं । स्कूलें अब मुनाफे का जरिया बन गई है .वहां से अब लाखों की कमाई के सपने लेकर मृगजल की बुँदे निकलती है और जिंदगी तपिश में सिर्फ़ मायूसी पाकर जिंदगी से हताश हो जाती है ॥
सीधी जिंदगी न माँ बाप को रास आता है न बच्चे को । एक विभक्त परिवार में आया के हाथ में बच्चे की परवरिश और खाना पकाने वाली औरत अलग से ...फ़िर कल उठाकर जब वृध्ध आश्रम में दाखिला होता है तब हम इस पीढी को कोसेंगे जी भरकर ...अरे प्यार ,मोहब्बत और भावनाओं को सिखाने की उम्र में हम नोट गिनने में रत थे । और नौकरों के हाथ गृहस्थी सौंप कार निश्चिंत हो गए थे ....सिर्फ़ बातें ही की है हर मौके पर अब परिणाम से डर लगता है ...
कहते है जो बिज बोते है उसका ही फल उगता है ..बबूल के पेड़ पर आम का इंतज़ार कैसा ???बस यही तो जिंदगी है ...आज कल के दूसरी कक्षा के बच्चे भी बॉय फ्रेंड और गर्ल फ्रेंड का मतलब ...आधा अधुरा सेक्स का ज्ञान टी वी चेनल के जरिये पा लेते है और जिंदगी और जवानी दोनों सही मार्गदर्शन के आभाव में बरबाद हो जाते है ....
इसके लिए जिम्मेदार कौन है ? हम , शिक्षण, संस्थाएं ,बदलता माहौल या ख़ुद समाज ....कहाँसे सुधार हो सकता है सब जानते है मगर पैसा ये पैसा ...सब खरीदता है मगर कैसा ??????
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