18 अप्रैल 2018

लकीरें

हथेली से गुजरती हुई
वो पतली सी पानी की धार
पथ्थर की तरह
एक लकीर बनाकर चली गई .....
सहर में एक अक्स उभरकर निकला
उस लकीर की गहराई से
एक आवाज भी आई ...
वो आवाज में घुला था मेरा नाम ...
दौड़कर खिड़की खोली ,
एक सर्द हवा का झोंका
मेरे चेहरे को छूकर कमरे में आ गया...
मैं खामोश वो झोंके से उभरा वो
गीत सुनता रहा जो तुम गाती थी...
अक्सर मुझे बुलाने का इशारा देते हुए ,
जब उस झरने पर पानी भरने आती थी ...
लोग कहते है ये झरना नही सूखता
कड़ी धूपों में जुलसकर भी !!!!
कैसे सूखे ??
रातों को तन्हाई में झरने के किनारे
रोते है हम दोनों तुम्हारी यादों में भीगते है ....

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